वैसे तो मेरी रचनाएँ बेहद सकारात्मक होती हैं, परन्तु जीवन में जैसे सब लोग, स्थितियाँ सकारात्मक नहीं होतीं, नकारातामकता भी हमें आम मिल ही जाती है। कोशिश तो होती है कि मन की शांति बनाए रखें। बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में, बेहद नकारात्मक लोगों के सामने जब हम उनके शोर के सामने चुप को चुन लेते हैं। क्योंकि उनसे फालतू में बहसना मानो पुराने-सड़े कूड़ेदान में से कुछ बीनने के समान है। कीचड़ के छींटों से बचना बेहतर है पर सही होकर भी, कानून-नियमों का पालन करते हुए भी अगर हम उनके शोर के आगे चुप रहते हैं तो कहीं न कहीं इस मलाल को निकालना बेहतर है, शुक्र है मेरे पास कलम की ताकत है तो मैं अपना विरोध बड़े शांत, समुचित, कानूनी तरीके से प्रदर्शित कर सकती हूँ। तो रचना पढ़िएगा और ऐसा ही आपका अनुभव भी साँझा कीजिएगा।

।। खिसियानी बिल्ली ।।

खुद से सच छुपाए फिरते हो।

झूठ को सच बनाए फिरते हो।

कानून-नियम सारे तोड़कर,

भ्रष्टता दंड उठाए फिरते हो।

कुफ्र ही कुफ्र, झूठ पे झूठ का,

नमूना खुद को बनाए फिरते हो।

दुनिया में मशहूरी दूसरों की,

घर में चुप बनाए फिरते हो।

भनक भी लग गई जब उनको,

तकिए में डर सिलाए फिरते हो।

झूठा रोने में तुम बहुत माहिर,

म्यान बस लहराए फिरते हो।

ऊँचा-ऊँचा शोर मचा कर,

कान बंद कराए फिरते हो।

मैं जो चीखूं, केवल सच वही,

वहम बड़े सहलाए फिरते हो।

कोई बात भी करने आए तो,

स्पीकर फटाए फिरते हो।

शीशे के पार्श्व भाग के सामने,

मुख अपना दमकाए फिरते हो।

नकारात्मकता बिगुल संग,

अंधेरा छिटकाए फिरते हो।

दूध और जल प्रत्यक्ष तुम्हारे,

झूठ ध्वज लहराए फिरते हो।

चरित्र का खुद एक्स-रे करो,

चीथड़े यूँ ही फैलाए फिरते हो।

मूर्खानंद होने की हद तो देखो,

अपनी खिल्ली उड़ाए फिरते हो।

खिसियानी बिल्ली बन अब,

नोचते खम्बे दिखाए फिरते हो।

✍️मुक्ता शर्मा त्रिपाठी

Photo by Francesco Ungaro on Pexels.com

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