कागज की गेंद
‘मैं बता नहीं सकती कि आज मुझे कैसा लग रहा है’ यह शब्द मुझे सीमा मेरी सहेली कह रही थी जो लगभग 1 साल के बाद मेरे घर आई थी।आई भी नहीं कह सकते, वास्तव में घर के आगे से गुजर रही थी तो मैंने ही आवाज़ लगाई और हाल-चाल पूछते-पूछते चाय के लिए कह दिया ।
असल में चाय पिलाने का न तो मुझे चाव था और न ही सीमा को चाय की कोई कशिश! मगर फिर भी जहां उसे चाय की भाप में दिल का भारीपन वाष्पीकृत करने का उपयुक्त बहाना लगा तो मुझे अपनी सखी के अन्तर्मन के जख़्मों पर मरहम सा लगाने का ठीक बहाना । तो दोनों की पलकों और मीठी मुस्कान की सहमति मिलते ही हम दोनों रसोई में ही खड़ी हो गई और चाय भी उस दिन फट से ही बन गई।
अब प्रश्न था चाय कहाँ पी जाए? तो हम घर की छत पर पड़ोस की मुँह बिचकाती, भोंडी सी पीठ की दीवार से पीठ सटाए दोनों बैठ गईं ।
तभी मेरी बेटियाँ भी वहीं छत पर आ गई, मेरे पास बैठने लगीं तो मैंने कहा ‘बेटा आप खेल लो !’
बिटिया भोली, ‘माँ क्या खेलें?’ ‘बेटा कुछ भी खेल लो।‘ बच्चियाँ समझ ही नहीं सकती थीं कि हम क्या चाहती हैं । हाँ शायद समझ सकेंगी अपनी शादी के बाद ।इतना सोचते ही मैंने स्वयं को रोक लिया क्योंकि मैं अपने विचारों को इस समय कहीं सैर करने के लिए नहीं भेज सकती थी। इसलिए अब बेटियों को उनकी जिम्मेदारी उनको ही सौंपते हुए कहा कि ‘बेटा आप कितने होशियार हो , कुछ भी खेल लो!’ अब बेटियाँ सीढ़ियों पर बैठ कर ही विचार करने लगीं कि क्या खेला जाए। दूसरी तरफ चाय के कप में पानी की बूँद गिरने जैसी आवाज़ आई तो जब नजर घुमा कर देखा तो सीमा के मुँह के शब्द किसी अमूर्त सीमा में जहां सीमित नजर आए। वहीं आँखें लगभग 365 दिनों में उसके घर की शांति का स्तम्भ उसे ही सिद्ध कर गईं ।
अर्थात सीमा के ससुराल में जो शांति ,सामान्य जीवन दिखाई देता था वह ऊपरी था। सारा तूफान तो सीमा के छोटे से दिल के सागर में कैद था।
चलो जैसे ही मैंने उससे पूछा तो जख्म कुरेदे से गए। खून-पीक सब असंयमित हो कर निकल आए। पता चला कि सीमा की माँ न होने के कारण मायके लंगड़ा सा हो गया है। वैसे लंगड़ा नहीं अंधा, बहरा, गूँगा सब कुछ।
इधर ससुराल जिसकी वह पहले मालकिन यां घर नींव थी अब वह दीवार की ईंट के बराबर का महत्व भी नहीं रखती थी।
कभी ससुराल वाले मुफ्त की गेंद की तरह मायके की तरफ फेंकते तो कभी मायके वाले मुफ्त की गेंद की तरह ससुराल वालों की तरफ, जैसे कि मेरी बेटियाँ इस समय फेंक रही थीं ।
ससुराल-मायके दोनों हाथों में पकड़े गत्ते के टुकड़ों की तरह और बीच में उछली हुई तोड़-मोड़ कर ज़ोर से इकट्ठी की हुई कागज की गेंद। गत्ते के कुछ ही थपेड़ों बाद उसकी हालत पर भी कोई तरस नहीं करेगा। उसी तरह हम औरतें!
पर पता नहीं क्यों हम कागज़ की गेंद बनना पसंद करती हैं ? क्यों नहीं अपना अस्तित्व पहचान पातीं? और क्यों असीमित क्षमता की होकर कभी-कभी सीमा में ही रह जाती हैं ?
दो घंटे बाद सीमा जब सीढ़ियां उतरती हुई बाहर निकली तो जहां उसके कदमों में मजबूत भविष्य की थाप सुनाई दी वहीं चेहरे पर एक तेज़ जिसमें उसकी परेशानियां हवन सामग्री बनने वालीं थीं।
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मुक्ता शर्मा त्रिपाठी
The author
Ernest M. Hemingway was an American novelist, short-story writer, journalist, and sportsman.
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